दूर खड़ा वो आग को देखता है… आग की गर्मी महसूस होती है| उसे हमेशा कशिश थी आग जैसा होने की.. शायद उसे अपना कोई हिस्सा वहाँ बुलाता है| दूर खड़ा वो आग को देखता है… बढते हैं कदम तो पसीने से, जैसे उसने बाकी अपने हिस्से पिघला दिए है| जितना करीब वो जाता उतनी
अँधेरे कमरे का वो सिसकता आलम, खामोश रात में घुलती सिसकियाँ| दूर सुबह… मेरी तन्हाइयों को निहारती है| कल वो दिन, मेरे भटकते ख्यालों की नई सौगात| देखता हूँ खुदको रास्तों में गुम होते| फिर उसी मोड़ पर, वो मेरा इंतज़ार करती हुई| फिर भी मैं नहीं रूकूंगा| उसकी नज़रें मुझे तकती रहेंगी, और मैं
स्याही के कुछ धब्बे सा हूँ मैं.. तुम इनमे मतलब ना ढूंढो, कोई छिडक गया था बेइरादा इन्हें| बस उलझे लफ़्ज़ों का भवर है, जिनमे डूबती है कुछ कागज की कश्तियाँ| संभालो, तुम्हारी उँगलियों से भवर ना टूट जाए.. इनमे घुटना ही मेरी इन्तेहा है| स्याही के कुछ धब्बे सा हूँ मैं..
मेरी सवालों से मुलाक़ात हुई … थोड़े सहमे से थे वो| इंतज़ार कब का दम तोड़ चुका था| जवाब कब आने को थे.. मेरी सवालों से मुलाक़ात हुई … फिर ये सहमे सहमे से क्यों हैं? क्या वजूद का खतरा है इन्हें? किस आहट से इनका दिल डूबा जाता है| कौन है वहाँ? ज़रा परदे
एक पिटारा लाया हूँ| इसमें है कुछ ख्याल उड़ते, कुछ ख्वाब मचलते, कुछ मायूस से सवाल, कुछ लफ़्ज़ों को तरसते जवाब| एक पिटारा लाया हूँ … कुछ तसवीरें मेरी ज़हन की है इसमें, मेरी अपनी बनाई हुई हैं ये| इनमे कोई रंग नहीं भर पाया हूँ| एक पिटारा लाया हूँ … कुछ रंगों की पोटली
मंज़िलें तडपती रहीं, रास्ते मचलते रहे| वक्त पलट के देखता रहा, उस अवारे को .. उसकी शायद मंजिल ही तलाश थी.. रुसवा कर चुका था वो जज़्बात को… देखता था वो धुंद में तस्वीर कोई… उसकी फितरत ही थी रास्तों को नापने की… ख्यालों की दुनिया उसकी अपनी थी… उसे सदाओं का आसरा ना था..
क्यों चलता है तू मेरे साथ … खो जा हवाओं में .. बिखर जा फिज़ाओं में .. मैं मौसम हूँ बीत जाऊंगा … अगले बरस मुझे तिनका तिनका जोड़ेगा तू … क्यों चलता है तू मेरे साथ …
कोयले का अंगार देखा है.. कैसे तिनका तिनका जलके राख होता है| उसकी राख उस से लिपट कर, उसे ही भुझाने लगती है.. उसका अपना ही कुछ, उसकी घुटन बन जाता है.. उसे इंतज़ार है हवा के एक झोंके का.. कोयले का अंगार देखा है.. कभी भडकता, कभी घुटता .. उम्र भर जलकर, उसे राख