सितम्बर 26, 2012
बगावत कर दी है
इतने सिरों का छोर, पकड़ा है, एक अकेली जान से,
बगावत कर दी है ज़हन ने, दिल-ए-परेशान से |
डूबने लगता है, इसकी दस्तक से घबरा के दिल,
तन्हा रात का खौफ, सताने लगता है शाम से |
फिर भी हम, नहीं करते कभी सच कबूल,
के अपने ही घर में जीये जा रहे हैं, मेहमान से |
हासिल है पल भर का सुकून, हर नई ग़ज़ल से,
और कुछ नहीं मिलता, इस बेलगाम दीवान से |
अब तौबा कर ले इस जूनून-ए-सुखन से ‘वीर’,
वरना जायेगा का एक रोज़, तू अपनी जान से |