जनवरी 9, 2010
दर्द ये एक गुमनाम सा है
ये वक्त इम्तेहान का है,
इश्क के अंजाम का है|
हो फना उसकी चाहत में,
इरादा इन्तकाम का है|
उसकी है कोई मजबूरी,
ख़ामोशी में पयाम सा है|
चल किसी नए शहर जहाँ,
नाम अपना गुमनाम सा है|
देर तलक तन्हा सोचना,
रोज़गार हर शाम का है|
घर तो कभी था ही नहीं,
सिर्फ पता मकान का है|
नयी नहीं है कहानी मेरी,
किस्सा ये आम सा है|
किसका ज़मीर है पूरा साफ,
हर कोई थोडा बदनाम सा है|
कोई ख्वाब नहीं बाकी,
जिस्म ये बेजान सा है|
ऐसे ही जिंदा रहना पड़ेगा,
क़र्ज़ उनके अहसान का है|
है जिंदिगी नहीं ये आखरी,
बस नाम एक मकाम का है|
उड़ते नहीं बादलों से ख्याल,
दिल बंद आसमान सा है|
काश होता कोई लफ्ज़ ‘वीर’,
दर्द ये एक गुमनाम सा है|