दिसम्बर 21, 2009
इज़हार
सोच रहा था शाम ओ सहर,
कौन सा रंग बहार का है|
तुमको देखा तो लगा,
रंग जो तेरे रुखसार का है|
गम और ख़ुशी में फर्क है इतना,
एक लम्हा जो तेरे दीदार का है|
वो मिले या न मिले,
इश्क में मज़ा इज़हार का है|
मिटाएगा कौन तेरे जज़्बात को,
डर क्यों तुझे इनकार का है|
बदलेंगे ज़माने के तौर भी सनम,
सवाल बस तेरे इकरार का है|
बीतेगी अब हर घडी देर से,
पल जो इंतज़ार का है|
फासला कितना है हमारे दरमियाँ,
सफ़र एक पुकार का है|
सुरूर क्या जो रहे ना उम्र भर,
ऐ साकी तेरा मयखाना बेकार का है|
जब से पिया है उस नज़र से,
हर लम्हा खुमार का है|
मिले थे कभी जिस जगह तुम,
आशियाँ अब वो मेरे मज़ार का है|
और क्या है ज़िन्दगी बता ‘वीर’,
सौदा एक लाचार का है|