नवम्बर 29, 2010
कोई मुझ जैसा
शहर तो छूट गया, घर भी टूट गया,
कोई मुझ जैसा, मुझको ही लूट गया|
बुलाता रहा उम्र भर, मनाता रहा उम्र भर,
वो जो रूठा मुझसे, ज़माना ही रूठ गया|
कोई मुझ जैसा, मुझको ही लूट गया…
मैंने खुदा माना था, सबसे जुदा माना था,
आईने पिघल गए, अक्स भी डूब गया|
कोई मुझ जैसा, मुझको ही लूट गया…
ख़ामोशी सदा थी उसकी, ये भी अदा थी उसकी,
अब ईमान कहाँ से लाऊँ, खुदा कहकर झूट गया|
कोई मुझ जैसा, मुझको ही लूट गया…
अब भी ख्यालों में है, बिखरा सवालों में है,
कैसी बेवफाई है ‘वीर’, वो गया तो क्या खूब गया|
कोई मुझ जैसा, मुझको ही लूट गया…
जो होना था हो गया, जिसे रोना था रो गया,
फिर सजाले ख्वाब ‘वीर’, ये ख्वाब तो टूट गया|
कोई मुझ जैसा, मुझको ही लूट गया…