लिखते लिखते आंख भर आई है
लिखते लिखते आंख भर आई है,
फिर भी तू एक ग़ज़ल ही कहलाई है|
लफ्ज़ तो बस लफ्ज़ ही होते हैं,
ज़ाहिर कहाँ इनमें दर्द की गहराई है|
लिखते लिखते आंख भर आई है …
हर शेर तेरा मेरी तड़प का नतीजा है,
हर हर्फ़ में तेरे लिपटी मेरी तन्हाई है|
लिखते लिखते आंख भर आई है …
फिर आज लिपट के रो लूँ इनसे,
इन्होंने ही तो आग भड़काई है|
लिखते लिखते आंख भर आई है …
फासले ये उम्र भर ना मिटेंगे,
मेरे लफ्ज़ बस मेरी परछाई है|
लिखते लिखते आंख भर आई है …
क्यों समझते हैं लोग इसे जिंदिगी,
बस मौत से बिछड़ी रूह की जुदाई है|
लिखते लिखते आंख भर आई है …
कौन गुनाहगार है इन हालात का,
तुम ही ने तो ये दुनिया बनाई है|
लिखते लिखते आंख भर आई है …
कब तलक सिलसिला यूँ ही चलेगा,
वक्त ने कौन सी बिसात बिछाई है|
लिखते लिखते आंख भर आई है …
हमसे वो दीया ना देखा गया तडपता,
उम्मीद की वो लौ हमने ही बुझाई है|
लिखते लिखते आंख भर आई है …
तू तो बे-लिबास हो गया पगले,
सबको तेरी हकीकत नज़र आई है|
लिखते लिखते आंख भर आई है …
पहचानता नहीं अपने अक्स को मैं,
मैंने अपनी कैसी तस्वीर बनाई है|
लिखते लिखते आंख भर आई है …
दे देता है हर टूटे ख्वाब पर ख्वाब नया,
दिल भी कमभख्त अजब सौदाई है|
लिखते लिखते आंख भर आई है …
उसकी तारीफ को और क्या समझूं,
ज़माने सा वो भी हरजाई है|
लिखते लिखते आंख भर आई है …
इतनी दुश्मनी भी ठीक नहीं,
दुआओं से तूने मेरी उम्र बढ़ाई है|
लिखते लिखते आंख भर आई है …
गूंजती रही तेरी आवाज़ रात भर ज़हन में,
कहीं शायद तूने मेरी ग़ज़ल गुनगुनाई है|
लिखते लिखते आंख भर आई है …
तू मेरा कर भला मैं तेरा करूँगा भला,
कितनी बुलंद आपकी खुदाई है|
लिखते लिखते आंख भर आई है …
बुझ रहा है तू लिखते लिखते ‘वीर’,
उस पे यारों की होसला अफजाई है|
लिखते लिखते आंख भर आई है …
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माँ ने रोटी के चार टुकड़े कर,
फिर गरीबी याद दिलाई है|
लिखते लिखते आंख भर आई है …
कुछ और ना लिख पाएगा ‘वीर’,
सूख गई कलम की स्याही है|
लिखते लिखते आंख भर आई है …