दिसम्बर 1, 2011
मैं थोड़ा कच्चा ही हूँ हिसाब में
क्या लिखें क्या ना लिखें इस किताब में,
मैं थोड़ा कच्चा ही हूँ हिसाब में|
बयां कैसे करूं इतने रंगों को,
इतने रंग दिखते हैं मुझे जनाब में|
मैं थोड़ा कच्चा ही हूँ हिसाब में…
ख्वाब में ही सही पर एक फूल तो है,
सबकुछ बंजर नहीं दिल-ऐ-बर्बाद में|
मैं थोड़ा कच्चा ही हूँ हिसाब में…
थोड़ा नमकीन भी है ये गमज़दा,
थोड़ा मीठा भी है मिजाज़ में|
मैं थोड़ा कच्चा ही हूँ हिसाब में…
कुछ सच के टुकड़े और झूट के आईने,
क्या-क्या ना मिला मुझे एक जवाब में|
मैं थोड़ा कच्चा ही हूँ हिसाब में…
डरता हूँ अपनी ही सूरत से ‘वीर’,
मुझे रहने दो यूँ ही हिजाब में|
मैं थोड़ा कच्चा ही हूँ हिसाब में…