दिसम्बर 21, 2009
मेरे खत को
ना जाने कितनों को पड़ेगा समझाना,
मेरे खत को बिस्तर पे ना भूल जाना|
अपने अश्क तो आँखों में छुपा लोगे,
तकिये पे कोई निशानी ना छोड़ जाना|
कांपती आवाज़ तुम्हारे खोल न दे सारे राज़,
हमेशा तबस्सुम को होंटों पे सजाना|
इम्तेहान-ऐ-इश्क, इतना भी मुश्किल नहीं|
दीवाने जानते हैं हार के भी जीत जाना|
महसूस करोगे लफ़्ज़ों में लिपटे एहसास को,
तनहाई में कभी मेरी ग़ज़लों को गुनगुनाना|
इश्क कोई खता नहीं ‘ वीर’
कितनो ने इस गुनाह को खुदा है माना|