मार्च 16, 2013
पसंद
सच, क्या तुझे भी सच सुनना पसंद है ?
मैं झूठ हूँ, मुझे सच बुनना पसंद है |
गाँठ जीस्त की खोल रहा है गुज़रता वक्त,
मैं लम्हा हूँ, मुझे उलझना पसंद है |
उम्मीद की डोर से पिरोई है आरजू मगर,
मैं हसरत हूँ, मुझे बिखरना पसंद है |
मेरे बाद तुझे तलब न रहेगी मंजिल की,
मैं रास्ता हूँ, मुझे भटकना पसंद है |
हर दिन वही चेहरा लिए कैसे मिलूँ तुझसे,
मैं हालात हूँ. मुझे बदलना पसंद है |
तेरे हर इम्तिहान से मेरा वजूद कायम है,
मैं मोहब्बत हूँ, मुझे परखना पसंद है |
हर दाग किसी फौजी के तमगे से कम नहीं,
मैं दिल हूँ, मुझे संवारना पसंद है |
सहरा से पूछ एक बूँद की तिश्नगी ‘वीर’,
मैं दर्द हूँ, मुझे सिसकना पसंद है |