दिसम्बर 9, 2011
बज़्म ए ख्याल – 18
कुछ कमी ज़रूरी है वफ़ा में,
दर्द से ही तो मुकम्मल होती है मोहब्बत|
तुम भी शीशे की असलियत जान ना पाए,
बेज़ुबान है पर बेनज़र नही है वो|
खुदी बिखर गयी है चारों तरफ,
अरसों में खिला है ज़हन मेरा|
हर लफ्ज़ की सदा हुई है सवाल सी,
चल के हो गयी है बज़्म बवाल सी|
शजर से टूटी शाख जड़ें ढूढ़ती हैं..
आ लफ्ज़ भी बाँट लेते हैं,
‘हम’ से ‘तुम’ और ‘मैं’ छांट लेते हैं|
यही दिन था उस साल का,
खूब माजरा था बवाल का|
मैं कोशिश करता हूँ भूल जाने को,
आप मगर नहीं भूलते याद दिलाने को|
रुसवा हुए अश्क गिर कर ज़मीन पर,
आरज़ू थी इन्हें भी तेरे दामन की|