बज़्म ए ख्याल – 7
होठों पर फिर घिसी हुई बातें,
करवट ले लेकर गुजारी हुई रातें|
लिखकर दर्द अपना सुकून तलाश ना कर ‘वीर’,
सर झुक जाएगा उसका अपनी बेबसी के आगे|
हवाओं से बातें और रंगों की जुबान,
उसके इख्तियार में क्या नहीं है ‘वीर’ बता|
भूल जाते हैं करार वो, दिन के शोर में ‘वीर’,
हम भी ढूँढ ही लेते हैं कोई काम अधूरा|
कितने मंज़र थे उन आँखों से लिपटे हुए,
देखता रहा मैं उन में एक ज़माना गुज़रा हुआ|
अब तेरा खामोश रहना ही मुनासिब है ‘वीर’,
उनको ना आवाज़ पसंद है ना अंदाज़-ए-बयाँ तेरा|
दिल झूम जाता है और आँखें मुस्कुराती है,
तुमसे मिलकर लम्हों की फ़ितरत ही बदल जाती है|
और फिर यूँ भी होता है तुम्हारे ना होने पर,
तुम्हारी कही हर छोटी बात एक गज़ल बन जाती है|
क्यों मातम सा है मेरे ज़हन में आज,
जाने कौन गुज़रा है, जाने किसने दम तोड़ा है|
मुझको बदलने वाले अब गुज़रे अक्स के ख्वाहिशमंद हैं,
काश ‘वीर’ उन्होने अपना ही आईना ना बदला होता|
वो लम्हा मुझे एक ख्वाब सा नज़र आता है,
ना भूल ही पाता हूँ उसको, ना पूरा याद आता है|
ज़िन्दगी सीखा रही है बात पते की तुझे वीर’,
मोहब्बत में हैं और भी मकाम अभी हासिल करने को|
ये बात खैर एक राज़ ही रहे तो अच्छा है ‘वीर’,
क्यों तूने अपने इश्क़ को परवान ना चढ़ने दिया|
शिकवों ने घेरा है उसको इस कदर से ‘वीर’,
तू नज़र आता नहीं कहीं सामने रहकर भी|
फ़ना हुए जो हम तो तेरा ही कसूर होगा ‘वीर’,
नाम एक पत्थर पर लिख कर भूल जाएंगे तुझे|
ख़याल, ख्वाब और लफ्ज़ की दुनिया मिटा दे ‘वीर’,
तुझे हासिल ना होगा कुछ इस पिंजरे से|
चल कहीं जहाँ नामोनिशां ना हो इस तस्वीर का ‘वीर’,
रंग और भी हैं जो तुमने अब तक देखे नहीं|
तेरी सदा सुनी ना हो ऐसा मुमकिन है ‘वीर’,
वो गुनगुना रहा था अपना कोई गम देर से|
मैं लिख रहा हूँ यही गनीमत है ‘वीर’,
खामोश हुआ तो दफ्न हो जाऊँगा ज़हन में|
इतनी स्याही है इस कलम में मेरे ‘वीर’,
डूब जाएगी हर कश्ती हौसलों की इनमें|
दर्द से कुछ पुराना मरासिम है मेरा ‘वीर’,
जुदा होता नहीं मुझसे चाह कर भी वो|
वक़्त काटने को ज़िन्दगी नहीं कहते ‘वीर’,
है और भी तरीके उम्र गुज़ारने के|
तुम खफा रहो तुम्हारा हक़ है ‘वीर’,
उम्मीद मेरे मनाने की, बस रखा मत करो|
ऐसा नहीं की हमें मालूम ना हो जीने का सलीका,
उसके बेगैर लेकिन ज़िन्दगी हमें कब रास आई है|
रात यूँ गुज़री करवटों में वीर,
पूछते रहे चंद सवाल खुद ही से हम|
सबकी मजबूरियाँ हैं, सब मशरूफ़ हैं,
तू क्यों तलाश करता है खुदसा गुमराह कोई|
यूँ अंजानो से बात करके अच्छा लगता है वीर,
जान पहचान में कोई हमारी सुनने वाला नहीं|
उसकी ज़िद के ज़िन्दगी यूँ ही बर्बाद हो जाए,
मेरी हसरत के शाम से पहले एक और जाम हो जाए|
एक पुराना रंग ज़हन में आया है ‘वीर’,
जिस रंग में तुमने रंग दी थी दुनिया अपनी|
भटकना तेरा मुकद्दर नहीं, तेरी कमजोरी है ‘वीर’,
याद कर कभी तू भी सिकंदर हुआ करता था|
ज़िन्दगी की शक्ल तो नहीं बदली है ‘वीर’,
तुमने बस ये आईना एक अरसे से नहीं देखा|
एक नये मकाम की तलाश है मुझे ‘वीर’,
बहूत देर से खड़ा हूँ इसी मंज़िल पर मैं|
भूल कर हमें गुनाह तो नहीं किया है ‘वीर’,
आख़िर कब तलक़ माज़ी के साये में ज़िन्दगी बसर करते|
रोने वालों की शायद फ़ितरत में ही होगा रोना,
हम तो हसेंगे तुझे हर रोज़ हंसा कर|
कल लौटके आएगा वो मुझे यकीन हैं मगर,
गम है की गुज़र जाएगी ज़िन्दगी इन छोटी बातों में|
जो सच है वो तुम्हें भी पता है ‘वीर’,
यूँ शब्दों के घेर में मरासिम ना उलझाया कारो|
सीधी बात ही किया करे ज़माना हमसे ‘वीर’,
वक़्त ज़ाया करते हैं लोग बहूत अदब में|
मेरी कोशिशें नाकाम होती रही ‘वीर’,
और डूबता गया दिल एक समुंदर में|
वही सिलसिला हुआ और वही गम मुझे ‘वीर’,
मैंने फिर तोड़ दिए वादे वफ़ा के|
जो खो दिया है करार इस मोहब्बत ने ‘वीर’,
काँटों से ही सजा ले तू ज़हन अपना|
तमाशे को देखने वाले कई हैं ‘वीर’ यहाँ,
ना बवाल कर ना खबर ही दे किसी नदीम को तू|
मैं पी तो गया सारा ज़हर ‘वीर’,
अब मुस्कुराने की इल्तजा ना कर मुझसे|
ना ज़ाहिर ही करुँ ना खामोश रह सकूं,
बड़ा मुश्किल है तुझसे गिला करना|
कज़ा एक निर्दयी साहूकार जैसी है ‘वीर’,
मोहलत नहीं देती है एक लम्हें की भी ज़िन्दगी को|
खामोश रहकर भी तो गुज़र सकता है वक़्त तकलीफ़ों का,
हर्फ़-हर्फ़ बयाँ करे तेरा दर्द ऐसी जूस्तजू क्यों ‘वीर’|
ये शौक़ मेरा, के तुझे बेनक़ाब देखूं ‘वीर’,
ये गिला तेरा, के मुझे आता नहीं पर्दों में रहना|
पंख नये मिले तो परिंदा परेशान हुआ,
कहाँ से लाए एक नया आसमान नापने के लिए|
गर ज़िन्दगी क़ैद-ऐ-मोहब्बत में ना गुज़री होती ‘वीर’,
होता मेरे नाम का एक सौदाई इस शहर में ज़रूर|
वो जो बदले हैं मिजाज़ हालातों ने ‘वीर’,
मेरी मोहब्बत ने भी नया रंग ओढ़ लिया है|
बदलते वक्त से गीला क्यों करें ‘वीर’ हम,
इसकी अदा में क़ुरबत भी है और जुदाई भी|