बज़्म ए ख्याल – 8
किसी को हमसफ़र नहीं मिला,
और किसी को रास्ता,
तमाम शहर ही किसी को ढूँढता मिला|
जिक्र आया तो था मेरा, उनके किस्से में,
ये बात और के मैं बेनाम ही रहा|
मेरा खुदाई से कभी कोई नाता नहीं था ‘वीर’,
मुझे जो भी भटकता मिला खुदा सा लगा|
मेरी मोहब्बत के कई इम्तहान आते रहे,
जाने क्यों वो मुझे रोज़ आजमाते रहे|
मुश्किल है उसका मुझे समझना ‘वीर’,
मैंने जाहिर ना होने दिया दर्द अपना|
हम को आईने इसलिए भी पसंद हैं,
नज़र नहीं चुराते हम से कभी वो|
वाजिब है उसकी नाराज़गी तुझसे ‘वीर’,
तू नहीं अब पिछले ज़माने जैसा|
विसाल था तो धुन्दला गयी थी तस्वीर लम्हों की,
अब फ़िराक है तो यादों से गिला हम करते हैं|
मुझे इल्म है वक़्त की साजिशों का,
तू भी मुझसे जुदा होने को है|
छुपा कर दिल को क्यों जिंदा रहे कोई,
खैर अच्छी ही है शीशे की पर्दादारी ‘वीर’|
देखे तो हैं सभी ने मोहब्बत के रास्ते,
चलने का हौसला मगर कम ही को हुआ|
कोई नज़र हम पर यूँ ना बरसी कभी,
देखते रहे हम खुद को तेरी नज़र से|
फिराक में तन्हाई का आलम क्या कहिये,
काट लेते हैं लफ़्ज़ों को थामे हम|
बेखुदी हमको इतनी रास आयी वीर,
पलटकर ना देखा ज़माना हमने|
ऐसे मसरूफ रहे ख्याल-ऐ-जाना में,
पा लिया हो कोई खजाना हमने|
तू मुरझाया है और मैं झुलसा हुआ,
जीस्त की तेज़ धुप के, दोनों शिकार हुए|
मेरा अंदाज़ नहीं है मोहब्बत छुपाने का,
और तेरा शौक़ है सर-ऐ-बज़्म नजर मिलाने का|
हसरत-ऐ-इश्क है जवान दोस्तों,
मुझे उसके होने का है गुमान दोस्तों|
मुझे हर सांस में सोचती है वो हमनफस,
कुछ कहते-कहते खुदको रोकती है वो हमनफस|
इश्क में अपना अजब हाल है,
हर सांस में उसका ख्याल है|
क्या नाम दूं तुझे जिंदगी,
फक्र में लिपटा कोई मलाल है|
मैंने दिन तो तामीर किया है संजीदगी से ‘वीर’,
देखिये इस बवाल का कौन सा सिरा फिसलता है|
एक लम्हा जिसमें सिर्फ मैं हूँ,
ना हासिल हुआ तुझसे मिलने के बाद|
मुझे कई मिले थे हमसफ़र वीर,
मगर मेरी मंजिल बदलती रही हर मौसम|
बीती रात हुआ फिर वही ‘वीर’,
रोये हम दीवारों का आसरा लेकर|
अब किस्से से लगते हैं वो साथ बिछड़े हुए,
कोई मुझसा था और कोई उनसा फ़साने में|
मेरा गम मेरा ना रहा देर तलक,
उसकी बेरुखी के नाम वो भी फना हुआ|
हर सूं बस नाम तेरा लेती है,
ख़ामोशी तुझे गुनगुनाती रहती है|
चार दीवारें बन गयी जिंदगी ‘वीर’,
और दरवाज़े तुमने बनाये ही कब थे|
एक हर्फ़ भी नहीं लिख पाया हूँ कागज़ पर,
बता खलिश और कैसे बयां होती ‘वीर’|
हमने होसलों की बातें सुननी छोड़ दी,
अक्सर रोका करती थी रोने से हमको|
जिंदगी यूँ उलझ गयी हस्ती से ‘वीर’,
अपने ही लिखे किरदार की गुलामी लगती है|
मैं नहीं इस जहाँ का होने वाला,
मुझे प्यारी है अपनी तन्हाई ‘वीर’|
सब रंगीन है ऊपर और फीके अन्दर से,
अजब पर्दादारी है ज़माने में|
तनहा मिला हर गम का कतरा मुझे,
मरासिम कम ही हैं उनके आपस में|
कोई तो बात है के सब धुआं हुआ है,
जाने क्या जला है मेरे ज़हन में आज|
आज सब कुछ धुंधला करके देखें ‘वीर’,
देखें क्या नज़र आता है गुबार-ऐ-जिंदिगी में|
उखड़ा हुआ शजर है शहर का हर बाशिंदा,
अपनी माटी से बिछडकर कब तलक रहे कोई जिंदा|
जिंदगी छोटी है ये तो पता है हम को,
अहसास होता है किसी अपने के गुज़र जाने के बाद|
वो जाते कहाँ हैं इस दुनिया से जाने के बाद,
और फिर तस्वीर से बन जाते हैं, धुंदला जाने के बाद|
उसकी सादगी उसकी मासूमियत क्या बयां करूँ,
और खूबसूरत लगता है वो खफा होने पर|
देखिए क्या हौसला बेखुदी का है,
जब फासला मीलों का नहीं जिंदगी का है|