मार्च 24, 2010
घर को जाता हूँ
घर को जाता हूँ…
बहुत कुछ बिखरा है वहाँ,
टुकड़े हैं मेरे कुछ फर्श पर|
दीवारों पर धबे हैं मेरे झूट के|
फीका पड़ गया हैं इनका रंग… इन्हें धोना है |
घर को जाता हूँ…
मेरी तस्वीरों पे गर्द है|
किताबें उसूलों की डेस्क में बंद है|
सपने सीलिंग पे लटके लटके थक गए है|
बहुत काम है!
घर को जाता हूँ…
अलमारी में सहेज रखे थे साफ कपडे,
इन्हें फिर से धोना है ज़मीर के जैसे|
मेरी खुशबू आती थी गलियारे में|
हर हवा का झोंका मेरे वजूद का था|
वहाँ अब सीत है ज़माने की|
घर को जाता हूँ…
वो दरवाज़ा जंग खाया होगा|
मेरी चाबी से नहीं खुलेगा|
उसको तोडना पड़ेगा|
काफी प्यारा है मुझे वो…
मेरे अपनों जैसा!
घर को जाता हूँ…