30 नवंबर 2011
कभी यूँ भी हुआ
कभी यूँ भी हुआ के,
रास्ते मंजिलों से जुदा हो गए|
जलकर आग-ए-कुर्बत में,
हम एक रोज़ धुआं हो गए|
कोई और नहीं,
हम ही दुश्मन थे खुद के|
अपना गिरेबान झाँका,
और गुनाहों के खुदा हो गए|
इबादत और इश्क में,
फासला रखना ज़रूरी था|
इतना माँगा तुझे हमने,
मिसाल-ए-दुआ हो गए|
मैं तुमसे सच कहने की,
ताक़त भी रखता हूँ|
तुम तो इसकी आगाज़ से,
मुझसे खफा हो गए|