नवम्बर 10, 2010
पहचाना सा दर्द था
पहचाना सा दर्द था,
मिल चूका था इसे कई साल पहले|
भरा हुआ ज़ख्म,
फिर अचानक सांस लेने लगा|
मानो किसी टूटी हुई टहनी में जडें निकल आयी हों…
ज़हन घबराया था,
फिर उसी आहट से|
पिछले मौसम बहूत कुछ छीना था इसने मुझसे|
मेरे दो चेहरे,
दो हिस्से हो गए थे|
आज और कल, दोनों आमने-सामने मुझे खामोश देख रहे थे|
मुमकिन न-मुमकिन,
आरजू और हकीकत|
एक ऐसे रुसवाई जिससे मैं समझ ना पाया|
बंदिशें तो तोड़ी हैं बहूत,
पर ये तो मेरा कुछ अपना ही है|
मुन्तजिर एक जिंदिगी का,
उसे इस जिंदिगी से पहले पा नहीं सकता|
जिंदिगी ने करवट तो ली मगर बहुत देर से|