मार्च 24, 2010
तलाश
दीवारों में कुछ छेद थे… इन्हें आज भर दिया|
अब इंतज़ार इनसे लिपट तो सकता है,
मगर ख्यालों तक नहीं पहुंचेगा|
दर्द चुनवा दिए हैं…यह अब ज़हन में क़ैद रहेगा|
किसी चरागाह की तलाश नहीं है|
अब इसे भी घुटन नहीं होती|
मायने जिंदिगी के मुझे नहीं सताते… बेमतलब ही सही वजूद|
अब अपनी खुदी को आईने में देखने की ज़रूरत नहीं|
कोई हाथ बढाये तो थम लेंगे… वो लम्हा जी लेंगे|
उस हाथ की लकीरों में शायद मैं कहीं था|
हमारे हातों से तो हमने सब मिटा दिया है|
हर कोई मुझे अपने रंग में रंग ले|
अपने कच्चे पक्के घड़े में डाल ले|
मैं तो पानी ही हूँ उनके लिए|
अपने घड़े तोड़ दिए हैं मैंने|
यूँ बसर रहेगी अपनी… तलाश के बिना|
खाल बस है..
उसे उकेल के कुछ हासिल नहीं है किसी को|
एक दुनिया क़यामत के इंतज़ार में खुद को ज़र्रा ज़र्रा मार रही है|
कोई आवाज़, कोई लफ्ज़, कोई सबूत, कोई गवाह नहीं है इसका|